डॉ. लक्ष्मी शंकर त्रिपाठी कानपुर
माता कौशल्या पूजन कक्ष में इष्टदेव की आराधना कर रहीं थीं, माता कैकेयी एवं माता सुमित्रा कक्ष के बाहर उनकी प्रतीक्षा कर रहीं थीं। दोनों माताएं चर्चा कर रहीं थीं—-‘दीदी आज कुछ अधिक समय तक आराधना कर रहीं हैं, गुरुवर वशिष्ठ की पत्नी देवी अरुंधती कभी भी पधार सकती हैं’, तभी शंख ध्वनि सुनाई दी, दोनों माताएं आश्वस्त हो गईं कि अब दीदी पूजन समाप्ति के पश्चात कक्ष से बाहर आ जाएंगी। माता कौशल्या ने बाहर दोनों माताओं को देखकर कहा–”कल से कुछ अधिक ही उलझन लग रही थी तभी ‘दोनों कुमारों ‘की कुशलता हेतु आराधना में अधिक समय लग गया”।
तीनों महारानियां रनिवास के सभागार में प्रवेश करती ही हैं तभी एक सेविका ने गुरुपत्नी देवी अरुंधती के आगमन की सूचना दी। देवी अरुंधती रनिवास में विशिष्ट तिथियों में पधार कर कर्म, धर्म, नीति, ज्ञान, भक्ति आदि विषयों पर वेद, पुराण, शास्त्र का संदर्भ ले कर चर्चा करती रही हैं। आज माता कौशल्या के आग्रह पर यह विशेष आयोजन है।
तीनों महारानियां – शान्त, सौम्य एवं दिव्य आभा युक्त देवी अरुंधती का विधिवत स्वागत करते हुए उनके लिए निर्दिष्ट विशिष्ट स्थान तक ले जाती हैं। उपस्थित सभी को प्रणाम करके देवी अरुंधती आसन ग्रहण के पश्चात कुछ समय के लिए ध्यानावस्थित हो जाती हैं। ध्यान की समाप्ति के पश्चात देवी अरुंधती ने सभी को प्रणाम किया और महारानी कौशल्या को सम्बोधित करते हुए आज के इस विशेष आयोजन का प्रयोजन जानना चाहा। उन्होंने पुनः कहा—-महारानी, आपकी उद्विग्नता से मुझे आभास हो गया है, फिर भी आप अपनी समस्या स्पष्ट रूप से व्यक्त करें, मैं प्रयास करूँगी समुचित समाधान का।
माता कौशल्या ने देवी अरुंधती को प्रणाम करते हुए कहा—–गुरुपत्नी देवी अरुंधती– मेरी समस्या दोनों राजकुमार—‘कुमार राम और लखनलाल की कुशलता’ से सम्बंधित है। चारों राजकुमार कुछ दिवस पहले ही गुरुकुल से शिक्षा ग्रहण कर राजमहल आए हैं, अभी तक गुरुकुल की सुरक्षित सीमा में ही उनकी शिक्षा हुई है। शुभ-यज्ञोपवीत के पश्चात ही चारों राजकुमार गुरुवर के मार्गदर्शन हेतु आश्रम प्रस्थान कर गए थे। मैं और मेरी दोनों बहनें–महारानी कैकेयी एवं महारानी सुमित्रा ने राजकुमारोचित उज्ज्वल भविष्य हेतु उन्हें सहर्ष विदा किया था। इतने वर्षों बाद हम माताएँ ‘बालक से नवयुवक’ हुए अपने सुंदर, सुशील, सुशिक्षित राजकुमारों के आगामी संस्कारों हेतु सपने संजो रहीं थीं। उनके गुरुकुल प्रवास के दिनों में यदा कदा ऐसी ही मधुर चर्चा कर हम आनंदित होते थे।
माता कौशल्या कुछ भावुक भी हो गईं, पुनः स्वयं को संयत करते हुए कहा—-अचानक एक दिन मुनि विश्वामित्र पधारते हैं। इतने महान तपस्वी मुनि का आगमन सम्पूर्ण अयोध्या राज्य को धन्य करने वाला पल था। महाराज ने मुनि का विधिवत सत्कार कर विशिष्ट आसन पर विराजित किया। महाराज की
(प्रसन्नता की तो कोई सीमा ही नहीं थी। ऐसी ही प्रसन्नता की स्थिति में चारों राजकुमारों को मुनि विश्वामित्र से आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु बुलवाया। मुनि ने आनंदित हो कुमारों को आशीर्वाद दिया। कुशल क्षेम के उपरांत मुनि ने उनके आश्रम में हो रहे राक्षसी उत्पातों की चर्चा की जिसके निवारण हेतु महाराज से सहायता का आह्वान किया। धर्मप्रिय महाराज ने स्वयं को सेना के साथ चल कर यज्ञ बाधक राक्षसों के संहार हेतु प्रस्तुत किया। मुनि ने इस प्रस्ताव पर असहमति व्यक्त करते हुए कुमार राम और लखनलाल को साथ ले जाने की अनुमति मांगी। हतप्रभ महाराज के लगातार अनुनय विनय से मुनि विश्वामित्र कुछ आक्रोशित भी हुए तब गुरुवर वशिष्ठ के अनुमोदन तथा आश्वासन पर दोनों राजकुमारों को मुनि विश्वामित्र के साथ भेजने की सहमति दी। हम सभी बहनें इस निर्णय को सुन हतप्रभ ही थे कि कुमार राम और लखनलाल विदा मांगने आ गए। इतने सुकुमार राजकुमारों को गुरुकुल की आश्रमी व्यवस्था के पश्चात राजमहल का सुख मिलना प्रारम्भ ही हुआ था कि पुनः घोर वन में जा कर सजग और सतर्क रहते हुए विकट मायावी राक्षसों से मुनि के यज्ञ की रक्षा भी करनी है। इतने सिध्द तपस्वी मुनि जिन राक्षसों से आक्रांत थे उनसे इन दोनों कुमारों को युद्ध करना पड़ेगा सोच कर ही हम माताएँ सहम गईं थी। भारी मन से हमनें उन्हें विदा किया था।
महाराज से ही कुमारों की कुशलता का समाचार कुछ दिनों तक मिला किन्तु जबसे वे घोर वन में गए समाचार मिलना बन्द हो गया। अपुष्ट सूचना मिली कि वन के अन्दर से अस्त्र शस्त्र तथा विभिन्न आयुधों के साथ साथ हुंकार और चीत्कार की मिली जुली ध्वनि आ रही थी। महाराज तो धीर गंभीर हैं, वे अपनी चिंता को अंदर ही अंदर छिपा कर हमलोगों से निश्चिंत रहने को कहते रहे हैं पर हमलोगों को अति विह्वल देख ‘गुरुवर की कृपा’ कह कर आश्वस्त करते रहे हैं। हम माताएँ कुमारों की कुशलता हेतु इष्टदेव की आराधना को ही सम्बल बनाए हुए हैं।
देवी —मेरा आपसे यही आग्रह है कि इतने सुकुमारों को इस अभियान में भेजने का औचित्य वह भी गुरुवर की अनुशंसा से—-क्या समीचीन है ? आप भी इन कुमारों को बाल्यकाल से ही जानती हैं, क्या कभी त्रिकालदर्शी गुरुवर ने इस विषय पर आपसे कोई चर्चा की है ? प्रतीक्षा का पल जैसे जैसे बढ़ता जाता है उद्विग्नता के साथ साथ आशंका बलवती होने लगती है। हम सभी आज ऐसी ही विषम परिस्थिति का सामना कर रहे हैं , कृपया मार्गदर्शन करें। अपने भावपूर्ण एवं करुणापूर्ण निवेदन के पश्चात माता कौशल्या ने गुरुपत्नी को प्रणाम कर अपना वक्तव्य समाप्त किया । सभा कक्ष में सन्नाटा छा गया, सभी की आंखे नम हो गई थी। बिलखती माताओं तथा कातर रनिवास देख कर देवी अरुंधती उठकर माताओं के पास आ कर उन्हें गले लगा कर ढाढ़स बंधाती हैं और ईश्वर पर विश्वास कर शान्त होने का निवेदन कर अपने स्थान पर पुनः विराजती हैं।
देवी अरुंधती ने महारानी कौशल्या के भावुकता पूर्ण संबोधन में इंगित संशयों का संदर्भ लेते हुए अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया—–
‘मातृत्व एक अद्भुत अनुभूति है। जैसे जैसे भ्रूण से नवजात फिर उत्तरोत्तर आयु बढ़ने पर बाल्यकाल से यौवन की स्थिति तक पहुंचने के क्रम में स्नेह, मोह, आकांक्षा, उम्मीद के साथ साथ संजोये गए सपनो में बढ़ोतरी होती है वैसे ही विपरीत परिस्थितियों में दुश्चिंता, संशय और उद्विग्नता भी बलवती होने लगती है।’ महारानी कौशल्या ने एक माँ के रूप मे जो चिन्ता व्यक्त की है वह सर्वथा स्वाभाविक और उचित है। प्रत्येक माता अपने बच्चों के प्रति ऐसे ही विचार रखती है। यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि एक राजा अपने राज्य का पिता की भांति पालक होता है तभी उसे प्रजा-पालक कहा जाता है, ऐसी स्थिति में महारानी का दायित्व माता के रूप में और विस्तार ले लेता है राजमाता के रूप में।
प्रजा अपनी समस्या के निवारण हेतु अपने राजा के पास इसी भावना से आती है। प्रजा में विभिन्न वर्गों के लोग होते हैं जिनके कल्याण एवं समस्या समाधान हेतु राजा प्रतिबद्ध होता है किन्तु साधु, सन्यासी, ऋषि मुनियों के प्रति राजा का दायित्व और भी अधिक हो जाता है। इस परंपरा के श्रेष्ठ जन राज्य से दूर वनों में अपनी साधना में रत रहते हैं। घोर वन में अपनी साधना, तपस्या, यज्ञ आदि से ये ज्ञान, विज्ञान के क्षेत्र में सतत अनुसंधान करते रहते हैं। धैर्यवान, दयावान, क्षमाशील ऋषि गण विपत्तियों का इन्हीं गुणों से सामना करते रहते हैं, किन्तु जब धर्म बचाते बचाते प्राण संकट में आ जाए तब प्रजा पालक राजा के पास पहुंचते हैं।
ऐसी ही विषम परिस्थितियों का सामना कर रहे ऋषि विश्वामित्र महाराज के पास एक याचक की भांति पधारते हैं। वे स्वयं राजा थे। राजर्षि विश्वामित्र से ब्रम्हर्षि विश्वामित्र हुए अपनी कठोर साधना एवं तपस्या से। घोर वन में वे एक विशिष्ट यज्ञ कर रहे थे जिसमें असुर बाधक हो रहे थे। त्रिकालदर्शी ब्रह्मर्षि विश्वामित्र अपने तपोबल से भविष्य में होने वाले असुरों से युद्ध में उन असुरों के संहार हेतु दिव्य आयुधों का अनुसंधान करने की प्रक्रिया में थे। एक देवासुर संग्राम में तो देवताओं की ओर से स्वयं महाराज भी भाग ले चुके हैं।
वस्तुतः प्रकृति ने परस्पर विरोधी रचनाओं का एक जाल सा बिछाया है पाप-पुण्य, दिन-रात, सुख-दुःख, देव-असुर आदि आदि। देव और असुर भाव प्रत्येक व्यक्ति, समाज और राज्य में व्याप्त रहता है। असुर भाव कभी समाप्त नहीं होता, दमन करने पर भी दबा रहता है। इस पर अंकुश व्यक्ति कर सकता है ‘ध्यान’ द्वारा, समाज ‘विधान’ द्वारा एवं राज्य ‘संधान’ द्वारा। ऋषिवर संभवतः इसी उद्देश्य से अयोध्या पधारे थे।
महारानी जहां तक चारों राजकुमारों की सुकुमारता का उल्लेख किया है वे सुकुमार हैं किन्तु हृदय से, नम्र हैं वाणी से, उदार हैं चित्त से, दृढ़ हैं संकल्प से। उनके नयनों में करुणा, चाल में गरिमा और चरित्र में महिमा है। गुरुकुल में विभिन्न विधाओं के श्रेष्ठ आचार्यों से पूर्णतया शिक्षित चारों राजकुमार राज्य संचालन हेतु अभीष्ट समस्त विधाओं में पारंगत हैं। संभवतः त्रिकालदर्शी ऋषि ने कुमार राम और लखनलाल में योजनानुसार भविष्य के महानायक होने की संभावना देखी हो।
महारानी कौशल्या महारानी कैकेयी एवं महारानी सुमित्रा के साथ जब रनिवास के सभागार की ओर अग्रसर थीं तभी अयोध्या नरेश महाराज दशरथ अपनी राज्य सभा जा रहे थे। मन ही मन दोनों कुमारों की कुशलता के प्रति चिंतित महाराज ने जब उद्विग्न महारानियों को देखा तो वे और चिंतित हो गए। ऐसी ही स्थिति में वे राज्य सभा में पहुंचते हैं, तभी गुरुवर वशिष्ठ का आगमन होता है। महाराज उन्हें प्रणाम कर उनके निर्दिष्ट स्थान पर विराजित कर स्वयं आसन ग्रहण करते हैं।
धीर, गंभीर महाराज अपनी चिंता छिपाये राज्य सभा की कार्यवाही में सक्रिय भूमिका निभा रहे होते हैं तभी द्वारपाल ने सूचित किया कि मिथिला नरेश विदेहराज जनक के विशेष दूत अति महत्वपूर्ण संदेश के साथ महाराज के दर्शन हेतु पधारे हैं। महाराज दशरथ की अनुमति मिलने पर दूत ने आदर सहित प्रणाम कर संदेश पत्र निकाल कर महाराज के कर कमलों में भेंट किया। अचम्भित से महाराज ने जब दूत की ओर देखकर इस संदेश पत्र में क्या है जानना चाहा तब मुस्कुराते हुए दूत ने कहा—मेरे महाराज का निवेदन था कि अयोध्या नरेश महाराज दशरथ पहले इस पत्र को पढ़ें तत्पश्चात मैं आपके सभी प्रश्नों का उत्तर दूं। पूरी राज्य सभा अचंभित थी कि ऐसा क्या है इस पत्र में। महाराज ने मन ही मन पत्र पढ़ना प्रारम्भ किया।
राज्य सभा के सभी लोग महाराज को उत्सुकता से निहार रहे थे। उन्हें दिखा– महाराज की भाव भंगिमा में एक सुखद परिवर्तन, जैसे प्रसन्नता का अतिरेक हों। नयनों में अश्रु, पुलकित और कंपकपाते हाथों से पत्र थामे महाराज कभी पत्र कभी दूत को देखते हैं। सहसा अति आनंदित एवं पुलकित महाराज अपने सिंहासन से उठकर गुरुवर वशिष्ठ को पत्र सौंप कर उनके चरणों में दण्डवत प्रणाम करते हैं। भाव विभोर महाराज गुरुवर द्वारा उठाए जाने पर यही बार बार कहते हुए गदगद हुए जा रहे थे—-‘यह सब आपके श्री चरणों का ही प्रताप है’। गुरुवर ने महाराज को स्नेह पूर्वक उठा कर गले लगाते हुए कहा यह सब आपकी और महारानियों की संत, गुरु एवं विप्र सेवा का फल है। तभी कुमार भरत और शत्रुघ्न लाल राज्य भ्रमण के पश्चात राज्य सभा में पधारते हैं। गुरुवर के हाथों में पत्र और उनके समीप महाराज को देख कर कुमार भरत ने जिज्ञासा प्रकट की—-महाराज ने प्रफुल्लित हो कर इतना ही कहा—-शीघ्र तैयारी करो, कल ही बारात लेकर मिथिला चलना है तुम्हारे परम प्रिय अग्रज राम की वधू लाने। दोनों राज कुमारों की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं थी।
महाराज ने दूत को निछावर देना चाहा पर उन्होंने बेटी की ससुराल मान कर आदर सहित मना कर दिया। महाराज के प्रश्नों पर दूत ने सिलसिले वार ताड़का, मारीचि, सुबाहु प्रसंग में कुमार राम की वीरता, देवी अहिल्या प्रसंग में उनकी करुणा, मिथिला वासियों के प्रति सहृदयता, शिव धनुष प्रसंग में कुशलता तथा परशुराम प्रसंग में मति धीरता का विस्तार से वर्णन किया। राज्य सभा के सभी सदस्य इन प्रसंगों को सुनकर प्रसन्नता से फूले नहीं समा रहे थे। तभी गुरुवर ने महाराज को आदेश दिया कि आप इस शुभ समाचार का संदेश पत्र ले जा कर विह्वल महारानियों को दिखाएं, साथ ही मिथिला के दूत को भी ले जाएं जिनके मुख से सम्पूर्ण विवरण सुन कर उन्हें और आनन्द आएगा। महाराज जो आज्ञा कह रनिवास की ओर बढ़ें उन्होंने अपने सबसे प्रिय सचिव आर्य सुमंत से आगामीकाल बारात प्रस्थान हेतु तैयारी करने को कहा।
महाराज जब रनिवास के सभागार में पहुंचे, देवी अरुंधती अपना वक्तव्य दे रही थीं। महाराज को अचानक वहां देख सभी हतप्रभ रह गए। महाराज ने गुरुपत्नी को प्रणाम करते हुए मिथिला नरेश का संदेश पत्र उनके कर कमलों में रख दिया। गुरुपत्नी पत्र पढ़ कर उल्लसित हो माता कौशल्या के समीप जा कर पत्र उनके हाथों दे कर कहती हैं—महारानी चिंता, आशंका, उद्विग्नता को छोड़कर आनंद, उमंग और उल्लास का समय आ गया है— तैयारी करो पुत्र वधू लाने की। सारा वातावरण आनंदमय हो गया। माताएँ बारम्बार गुरुपत्नी को भाव विभोर हो प्रणाम करती हैं।
मिथिला के दूत से बार बार सारा वृत्तांत सुनाने का आग्रह करती हैं। तभी कुमार भरत और शत्रुघ्न लाल वहां के आनंद में सम्मिलित हो जाते हैं।
तीनों महारानियां आपस में गले मिल कर पुलकित होते हुए रुंधे गले से कहने लगीं –
“जा दिन ते मुनि गए लवाई,
तब ते आजु सांचि सुधि पाई।”