रोहित किशोरवय का मध्यम वर्गीय परिवार का इकलौता बेटा, अपने माता-पिता से अनुमति लेकर रविवार के स्कूली छुट्टी के दिन अपने कुछ दोस्तों के साथ नदी स्नान के उद्देश्य से घर से निकला। नदी के पास अन्य कई पर्यटक भी घूमने के लिए आए हुए थे। सभी अपने व्यस्त आधुनिक जीवन से थोड़ा परे होकर शांति की तलाश में वहाँ इकट्ठा हुए थे। सभी दोस्तों के बीच रोहित मौज-मस्ती में सराबोर हो नदी के किनारे छिछले पानी में उतरा, पर होनी को कुछ और मंजूर था। उतरते ही रोहित का पांव एक काई जमे नदी के अन्दर पत्थर में पड़ता है और वो फिसलते हुए नदी के गहरे पानी में जा गिरता है। बाकी सब दोस्तों का ध्यान अपनी-अपनी मौज में था, जैसा कि स्वयं रोहित का नदी में उतरने से पहले था। अन्य दोस्तों की नज़रों से अलग, रोहित गहरे पानी में गिरते ही डूबने लगता है, उसकी सांसे फूलने लगती हैं। जैसे ही वो पानी के बाहर आता है, जोर से चिल्लाते हुए "बचाओ-बचाओ" की आवाज़ से मदद के लिए पुकारता है, पर मोबाइल की लत के मारे सभी उसकी फोटो उतारने लगते हैं। दोस्त भी हक्के-बक्के किनारे खड़े-खड़े हाथ मलते रह जाते हैं। पर उसे बचाने के लिए एक भी जिंदा हाथ नदी की ओर नहीं बढ़ता। तभी एक फकीर अपना चिमटा और झोला छोड़ दौड़ कर नदी के भीतर छलांग लगाते हुए रोहित को गहरे पानी में डूबने से बचाता हुआ उसके बाल पकड़कर बाहर निकाल कर ले आता है। फिर वो राम-राम कहते हुए ऊपर वाले का धन्यवाद करता हुआ वहाँ से चलता बनता है।
इस भरी भीड़ में हर कोई वैचारिक दृष्टिकोण से जिंदा नहीं है। ज्यादातर लोगों की संवेदनशीलता, सामाजिक कुप्रभाव एवं मानवता विहीन सांस्कृतिक धारा की वजह से मर चुकी हैं। जो मनुष्य स्वयं में जिंदा नहीं है, वह दूसरे की मदद भी नहीं कर सकता।
परन्तु, उस फक्कड़ फकीर ने अपनी जिंदादिली और इंसानियत की जो मिसाल दी वह अंधेरे में एक प्रकाश की तरह सभी की नजरों में छा गयी थी।