जहां प्रेम वहीं परमेश्वर

प्रेम संसार की ज्योति है और यह ज्योति ईश्वर द्वारा ही प्रदत्त है। जब एक जीव मां के गर्भ में आता है तभी से उसका पोषण शुरू हो जाता है। ईश्वर की माया से मां के ह्रदय में ऐसी भावना उत्पन्न होती है जैसे पौष्टिक आहार ग्रहण करके वही बालक का पोषण कर रही हो और वही आने वाली संतान का भविष्य भी संवारेगी, लेकिन यह पूर्ण सच नहीं है। ईश्वर हर माता-पिता के ह्रदय में इस जिम्मेदारी का बीजारोपण पहले ही कर देते हैं, ताकि वह अपना दायित्व अच्छे से निभाते चले जाएं और एक दिन वह अपनी संतान के लिए गर्व से कह सकें कि उन्होंने उसे जन्म दिया है और शिक्षित और समाज में उपयुक्त स्थान दिलाया है।

माता-पिता अच्छे संस्कारों का बीज बो अपने बच्चों का जीवन सँवारने का भरपूर प्रयास करते हैं। जीवन के हर मोड़ पर साथ निभाने की पूरी कोशिश करते हैं। परन्तु इन सभी सौभाग्यशाली क्रियाओं के पीछे कौन सी शक्ति काम कर रही है यह सोचने का विषय है। इंसान जब बड़ा होता है तब उसके पास परिवार का प्रेम तो होता है परन्तु उसके बावजूद वह चाहता है कोई उसे पहचाने, कोई उसे समझे ...कोई अकारण उससे प्रेम करे वो भी बिना किसी शर्त के। मनुष्य अकारण प्रेम इसीलिए चाहता है क्यों कि वह जिसका अंश है उनसे भी उसने अकारण प्रेम, करुणा और दया बरसाना ही सीखा है।

एक जीव का किसी माता के गर्भ में जन्म लेना, फिर उस मां से असीम प्रेम प्राप्त करना और उसकी ममता की छांव में जीवन बिताना, पिता के द्वारा बच्चों के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ना, यह सब क्या है ? यह ईश्वर के द्वारा संचालित प्रेम ही तो है ... जिसे मनुष्य जीवन पर्यन्त समझ नहीं पाता, चाहे जितनी किताबों को पढ़ ले, कितने मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर हो आए या देश-विदेश घूम ले। जो आत्मिक सुख उसे ईश्वरीय प्रेम दे सकता है और कोई, वैसा सुख-सुविधा नहीं प्रदान कर सकता है। अगर किसी मनुष्य को ईश्वरीय प्रेम की अनुभूति करनी है तो पहले उन परिस्थितियों का आंकलन करना होगा, जिसमें जन्म से लेकर अब तक ईश्वर ने किन-किन रूपों में आकर उसके जीवन को संवारा है। ईश्वर ने मां के रूप में ममता बरसाई, पिता बन कर अपना सर्वस्व न्योछावर किया, भाई-बहन बन कर साथ खेला पर कभी अकेला नहीं होने दिया। मित्र बन कर कभी डांटा तो कभी सही राह भी दिखाई। वृद्धावस्था में वही बच्चों के रूप में सेवा भी करते हैं। जब ईश्वर हर रूप में आकर इतना प्रेम बरसा सकते हैं तब हम भ्रमवश और किस तरह के प्रेम की खोज में लगे रहते हैं। असल में परमेश्वर से प्रेम की सच्ची अभिव्यक्ति ही जीवन को सन्तुष्ट और सार्थक बनाती है।

हमें हमेशा ईश्वर द्वारा रचित पवित्र प्रेम के बंधन में बांध रखने के लिए उनका कृतज्ञ होना चाहिए और आशीर्वाद स्वरूप उनसे यही प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे अंदर भी उसी भावना का संचार करें, जिससे हम भी अपने प्रिय जनों से दिल खोल कर निश्छल प्रेम कर सकें। प्रेम की राह पर चलकर ही मनुष्य ईश्वर के निकट जा सकता है। बात रही ईश्वर के दर्शन की तो यह उनकी कृपा पर ही निर्भर करता है कि वह कब और किन रूपों में हमारे सामने आते हैं। परन्तु एक बात सत्य है जहाँ प्रेम वहीं ईश्वर हैं बस उन्हें पहचानने की देर है।

मोनिका शुक्ला, हावड़ा