जनसंख्या वृद्धि पर लगायें लगाम।बचायें धरा को, धरोहर तमाम।।

एक खौफ़नाक अंधकार हमारी धरती पर अवस्थित जीवन को अपने विनाशकारी शिकंजे में जकड़ता चला जा रहा है। हम सब उस गहराते हुए अंधेरे को देखकर भी अब तक नजरअंदाज़ ही तो करते आ रहे हैं, जो भविष्य में आने वाले जलजले का सूचक है। यह अंधेरा उत्पन्न हो रहा है मानव जनसंख्या के ज्यामितीय गति से बढ़ते चले जाने के कारण। वर्तमान परिस्थितियों को देख कर तो ऐसा ही लग रहा है कि कुछ ही दशकों के उपरांत एक बड़े संकट के दौर से गुजरने वाली है हमारी धरती, जिस पर गंभीरता के साथ न तो जनता का ध्यान जा रहा है, और न ही सरकार का। यहाँ धरती पर संकट से आशय धरती पर अवस्थित जैव-विविधता पर मंडराते संकट से है। हर दिन इस धरती पर अनेक बालक जन्म ले रहे हैं, उस धरती पर, जो अपने क्षेत्रफल के मामले में तो ज्यों-की-त्यों ही है, किन्तु उसपर रहने वाली मानव जनसंख्या दिनानुदिन बढ़ती ही चली जा रही है। कथनाशय यह है कि धरती तो पहले जितनी ही आज भी है, किन्तु मानव जनसंख्या पहले सी नहीं रह गयी है।
"धरती तो रह गयी वही,
जनसंख्या बढ़ती जाये रे!
कुदरत का प्रकोप लखकर,
निरुपाय बुद्धि चकराए रे!!"
यूं तो जनसंख्या हर प्रजाति के जीवों की घटती-बढ़ती रहती है, किंतु, मानव जनसंख्या में हो रही बेतहाशा वृद्धि का दुष्प्रभाव पूरी धरती पर पड़ रहा है और इसी कारण धरती की सुरक्षा हेतु बढ़ती हुई मानव जनसंख्या की ओर ध्यानाकर्षण समय की सबसे जरूरी मांँग है। विज्ञान, तकनीकी और चिकित्सा जगत में हो रहे विकास के फलस्वरूप मानव-मृत्यु दर में काफी कमी आयी है; घातक बीमारियों और महामारियों के फैलने की घटनाओं में कमी आयी है। मनुष्य की औसत जीवन आयु भी बढ़ गयी है। मृत्यु-दर में कमी का होना तो हमारा अभीष्ट है और यह होना भी चाहिए, किंतु इतनी तीव्र गति से मानव जनसंख्या का बढ़ते चला जाना पूरी धरती के विनाश का अग्रिम सूचक है। प्राकृतिक संसाधनों का अमर्यादित दोहन एवं अनियंत्रित उपभोग हमारे भविष्य को खतरों के दलदल में डुबाता ही चला जा रहा है। आने वाले कुछ ही वर्षों में प्राणवायु-संकट, खाद्य-संकट, जल-संकट, आवास-संकट, बेरोजगारी, शिक्षा-दीक्षा-करियर तथा रोजगार संबंधी संकट, समाज में बढ़ती हुई अनैतिकता, लूटपाट, चोरी-डकैती, हिंसा और मारकाट, आपराधिक गतिविधियाँ, ये सभी समस्याएँ मूलतया जनसंख्या-वृद्धि से ही उद्भूत हैं। मनुष्य द्वारा अपनी आधुनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, नदी-पर्वतों आदि पर अपनी मर्जी थोपी जाती रही है और अभी भी थोपी जा रही है। इसका खामियाजा हर जीव भुगतने को बाध्य है। यह अटल वास्तविकता तो हर किसी को स्पष्ट हो जानी चाहिए कि जनसंख्या वृद्धि ना महज हिन्दुस्तान की समस्या है, ना पाकिस्तान की, ना चीन की, ना ही जापान की। यह समस्या तो है सारे विश्व की, सारे जहान की! यह तो पूरी धरती की समस्या है, हम सब के अस्तित्व से जुड़ी समस्या। यदि हम धरतीवासी अब भी सावधान नहीं हुए तो रौद्र रूप धारण करती प्रकृति के क़हर से हमें कोई नहीं बचा सकता।
पृथ्वी की सुरक्षा हमारी सामूहिक ज़िम्मेवारी है। सड़कों पर, ट्रेनों, बसों, तथा अन्य वाहनो में कुछ ही वर्षों में यात्रियों की संख्या का अचानक इतना बढ़ जाना अत्यंत भयभीत कर डालने वाला विषय है। सड़कों पर घंटों तक लगा रहने वाला जाम भी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष, दोनों रूपों से बढ़ी हुई जनसंख्या का ही दुष्प्रभाव है। हर ओर दमघोंटू वातावरण है। आज से कुछ ही दशक पूर्व इतनी अधिक भीड़भाड़ कहाँ देखने को मिलती थी? कुछ ही दशकों में यह भीड़ अचानक इतनी भयावह हो बैठी है। आश्चर्य की बात तो यह है कि सरकार द्वारा चलाये जा रहे जनसंख्या वृद्धि नियंत्रण के तमाम कार्यक्रमों और अभियानों के बावजूद कोई खास सुधार नहीं दिख रहा है। अफरातफरी और घुटन का माहौल है। दिन-प्रतिदिन प्रदूषण का प्रकोप विकराल रूप धारण करता चला जा रहा है। जल, थल और वायु, सभी प्राकृतिक स्रोत प्रदूषित हो गये हैं और होते ही चले जा रहे हैं। धरती पर बढ़ते तापमान की वजह से जल-प्रलय की संभावनाएँ बढ़ती ही चली जा रही हैं। शोर-शराबा, चीख-पुकार, चहुँदिश अशांति ही अशांति! पहले तो मानव जनसंख्या कम होने की वजह से प्रकृति स्वयं ही समयान्तराल पर मानव गतिविधियों से उत्पन्न प्रदूषकों से निबट लेती थी, किंतु अब ऐसा कर पाना अकेली प्रकृति के लिए संभव नहीं रह गया है। पिछले चंद वर्षों में वृक्षों की होने वाली सतत कटाई ने परिस्थिति को ही अस्त-व्यस्त कर डाला है।
नगरीकरण और भूमंडलीकरण ने जहाँ हमें सुविधाओं की दृष्टि से उत्क्रमित किया है, वहीं दूसरी तरफ प्राकृतिक आपदाओं के क़हर को बढ़ा कर संपूर्ण जीव मंडल को गम्भीर खतरे में डाल दिया है। सुविधाओं के बढ़ते चले जाने के कारण प्रकृति पर दबाव बढ़ता ही चला जा रहा है। दुष्परिणामस्वरूप, किस समय धरती के किस भाग में कौन सी कुदरती आपदा आने वाली है, कहा नहीं जा सकता। दरअसल, अब तो सांँस लेने तक पर आफत दिखलायी दे रही है। अब तो बड़े शहरों में श्वसन की सहूलियत के लिए ऑक्सीजन पॉर्लर तक खोलने की आवश्यकता आन पड़ी है। हालांकि, कटु सत्य तो यही है कि हम मनुष्य स्वयं को कितना भी बुद्धिमान और शक्तिशाली मान कर अपने मिथ्या अहंकार को स्वप्रशस्ति से संतुष्ट करते रहें, प्रकृति के कोप के सामने हमारी एक भी नहीं चलने वाली। अतः वक्त का तकाजा है कि हम सब अनियंत्रित मानव जनसंख्या वृद्धि से निजात पाने की दिशा में जाति-पाति, धर्म-संप्रदाय, देश-प्रान्त, रीति-रिवाजों आदि के विभेदों से ऊपर उठकर एक मनुष्य की तरह सकारात्मक रूप से सोचें और जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण हेतु आवश्यक शर्तों का अनुपालन करें। यह हमारे सुरक्षित अस्तित्व के लिए निर्विकल्प रूप से अपेक्षित है। जरूरी है कि इस दिशा में हर संभव कदम उठाये जायें। मानव जनसंख्या का बढ़ते ही चला जाना सभी समस्याओं का मूल कारण है और उसे ही अनदेखा करना यह सिद्ध करता है कि हमारे समाज में अन्य समस्याओं के निराकरण के लिए उठाये जाने वाले सभी सरकारी अथवा गैर-सरकारी कदम महज स्वार्थ-संगत राजनीतिक औपचारिकता मात्र हैं। 'कृष्ण की चेतावनी' कविता से उद्धृत राष्ट्रकवि दिनकर जी की पंक्तियाँ-
"जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है...
टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा"
जनसंख्या-वृद्धि के परिप्रेक्ष्य में भी अक्षरशः सत्य प्रतीत हो रही हैं। यह हमारा अविवेक ही है, जो हम हर दिन भयानक होती जा रही इस समस्या के प्रति गंभीरता से सतर्क नहीं हो रहे। जल-थल तथा वायु प्रदूषण ने धरती को नर्क-तुल्य बना डाला है। शर्मनाक तो यह है कि हम सबने इस नारकीय विडंबना के प्रति अपनी आँखे बंद कर रखी हैं, लेकिन इसी तरह हाथ-पर-हाथ रख कर बैठे रहने से काल बन कर हमारी ओर चली आ रही विपत्तियों से छुटकारा नहीं मिलने वाला। समय और प्रकृति के पास हर मर्ज की दवा है। यदि हम बढ़ी हुई प्राकृतिक आपदाओं के रूप में मिल रही चेतावनी के बावजूद सच्चाई को अनदेखा करते रहे, तो इस संसार को संभावित विध्वंसाग्नि से कोई नहीं बचा सकता। जब तक जनसंख्या वृद्धि की गति पर नियंत्रण हेतु यथोचित कदम नहीं उठाये जाते, तब तक किसी भी समस्या का स्थायी हल नहीं निकल पायेगा। इसे अनदेखा करना प्राणघातक और महामूर्खता का ही पर्याय होगा। इतनी तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के संदर्भ में हिन्दी फिल्म के प्रसिद्ध गाने की पंक्ति "अल्लाह जाने क्या होगा आगे! मौला जाने क्या होगा आगे", का अनायास ही स्मरण हो आना स्वाभाविक है।
आज संपूर्ण विश्व कोरोना-संकट से त्राहि-त्राहि कर रहा है। यह स्वयं में भूमंडलीकरण का सबसे घातक 'साइड इफेक्ट' है। कोरोना संकट के कारण मनुष्य शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक पीड़ा झेलने को विवश है। विश्व के लगभग दो सौ से अधिक देश इस वैश्विक महामारी से मुक्ति पाने हेतु प्रयासरत हैं। कोरोना विपत्ति भी मानवों द्वारा प्रकृति से किये जाने वाले अमर्यादित छेड़छाड़ का ही नतीजा है। प्रकृति के इस क्रोध का शिकार मूलरूप से मानव जनसंख्या ही तो हुई है। कलियुग में धरा-विनाशक प्राकृतिक आपदाओं की आशंकाएँ तो वर्षों से जतायी जा रही थीं, किंतु वे इतनी शीघ्र असर छोड़ने लगेंगी, ऐसा नहीं सोचा जा सका था। मनुष्य इस सत्य को भूल गया है कि प्रकृति है, तभी जीवन है। बड़े ही अफ़सोस की बात है कि सभी रोगों के निवारण की क्षमता रखने वाली हमारी प्रकृति आज स्वयं ही बीमार हो गयी है, जिससे सभी जीवों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है। जहाँ एक ओर सारी दुनिया कोरोना-संकट से पीड़ित है, तो दूसरी ओर आँधी-तूफान, भूकंप तथा बाढ़ की विभीषिका का गमगीन नज़ारा भी है। दरअसल, हमने प्रकृति को अपनी दासी समझने का जो अपराध किया है, उसी की सजा विभिन्न आपदाओं के रूप में झेलने को मिल रही है।

