छाँव

प्रियंका शुक्ला
पुरी

टप – टप – टप ! बारिश का पानी छत की दराज से टपकने लगा। दुखती देह को किसी तरह संभालती रज्जो ने एक पतीला टपकते पानी के नीचे रख दिया। रात के सन्नाटे में पतीले में उसकी आवाज पहले तो तेज हुई, फिर थोड़ी कम हो गई। जैसे रज्जो का दर्द ! अब उसे भी आदत हो गई। शायद रात का तीसरा पहर है, सोचकर फिर लेट गई। गली के बल्ब की मद्धिम सी रोशनी खिड़की की दराजों से दीवार पर टेढ़ी सी लकीर बना रही थी। अक्सर रज्जो इसी रोशनी को देखती। ये उसके दुःख की साझेदार थी। तभी हर रात वो भी रज्जो के साथ मौन बातें करने आ ही जाती है।

भोर हुई! गिरजाघर के घंटे की आवाज से नींद टूटी। आज तो देर हो गई ! जल्दी से बालों को पीछे लपेटा – सभी काम जल्दी जल्दी निपटाकर, अपनी दुकान लेकर चल पड़ी। रज्जो एक छोटी सी सब्जी की दुकान लगाती है।

“दो किलो टमाटर, एक किलो मटर और एक किलो प्या… ज…………अरे ! आज फिर से मार खाई ! कितनी बार समझाया छोड़ क्यों नहीं देती उसे … ? ” उसी से हमेशा सब्जी लेने वाली सरिता ने प्रश्न किया।

“मैडम जी कहाँ जाबे छोड़ के? ब्याह के बखत अम्मा कहीं रही ना! तो अब, अर्थी मा जब जाब, तब ही पति का साथ छोड़ब।”

“अच्छा ! तो जरा अपनी अम्मा से ये तो पूछ – कि पति ही तैयारी करे अर्थी में भेजने वाली तब भी ….?”

सब्जी के पैसे थमाती सरिता ने प्रश्न किया। रज्जो ने डबडबाई आंखों से सरिता को देखा “मैडम जी अब हमरे भाग मा जो है, दोष कहाँ और किसे दें” – उत्तर दिया ।

मुश्किल से 26 साल की रज्जो, दिन भर कड़ी मेहनत करती है। अक्सर रात में शराब पी कर आए पति से पिटती भी है। कभी – कभी तो दो – तीन दिन तक उठ भी नहीं पाती। जब नशा उतरता, तब उसका पति माफी मांगता, हाथ पैर पड़ता। सरल ह्रदय रज्जो माफ़ कर देती। पर, दूसरा — “कारण पति ही सबकुछ है”, कूट-कूट कर सोते – उठते बचपन से दिमाग में भरा जो गया है।

रोज की भांति आज भी रज्जो दुकान से आकर खाना बनाने के बाद पति का इंतजार किए बैठी थी। आज काफी देर हो गई – अभी तक उसके पति का कोई अता-पता नहीं। आज ही के दिन तो उसका लगन हुआ था। उसने सुबह से पति को प्यार से, मनुहार से शराब न पीकर आने की गुजारिश की थी। पर, कुत्ते की दुम तो सीधी हो जायेगी, इन जैसे लीचड़ लोग कब सीधे होने लगे। कई बार दरवाजे की ओर आस से झांकती रज्जो, आंखों में नींद लिए बैठी थी।

रात के बारह बजने को हो चले, तब कहीं नशे में डोलता वो आया, रज्जो ने शिकायत की कम से कम आज तो न पीते, बस क्या था गालियाँ, लात घूंसों के साथ जो हाथ में आया उससे रज्जो को मनभर पीटा।

रज्जो की आवाज सुनकर बगल की काकी दौड़कर आई। कई लोगों को इकट्ठा कर रज्जो को उन्होंने बचाया। रज्जो की हालत बुरी थी। उसे अस्पताल में भर्ती किया गया।

हमेशा रज्जो से सब्जी लेने वाली सरिता को आज रज्जो नहीं दिखी। उसके बगल में बैठने वाली ने बताया कि वो अस्पताल में भर्ती है। सरिता भागी-भागी अस्पताल पहुंची। सच कुछ रिश्तों
के नाम नहीं होते, बस बन जाते हैं, जुड़ जाते हैं। शायद यही सच्चे मानवीय गुण होते हैं और यही संवेदनशीलता, जब हम किसी के दुःख को महसूस करने लगते हैं।

रज्जो को अभी – अभी होश आया था। बहुत बुरी हालत थी। सर पर कई टांके लगे थे। आँख, होंठ नीले पड़े थे। सरिता का मन रो उठा।

“बस बहुत हुआ रज्जो मैं अभी पुलिस को फोन करती हूँ, ये आदमी जेल जाने लायक है। जब तक पुलिस के डंडे नहीं पड़ेंगे, तब तक ये मार का दर्द नहीं जानेगा।”

“नहीं मैडम ! मैं आपके पैर पड़ती हूँ‌, पुलिस को फोन मत करना “

“तुम ऐसे इंसान को बचाना चाहती हो !!! आखिर क्यों ?”

उसको नहीं मैडम खुद को, ये दुनियाँ बड़ी खराब है मैडम जी, आप बड़े लोगों के घरों में दराज नहीं होते ना। पर हम गरीब के घरों में है। एक अकेली औरत के लिए अकेले रहना बहुत कठिन है, हर मोड़ पर भेड़िए खाने को तैयार बैठे हैं।

कम से कम इनकी छाँव में तो हैं। ये छाँव अगर चली गई तो मैं बरबाद हो जाऊंगी।” सरिता आश्चर्य से उसे देखती रह गई। फिर एक औरत मर्द से हार गई।

यह समाज ही पितृ सत्ता का है, जहां एक औरत के लिए मर्द का साथ होना इतना जरूरी है कि अपना आत्म सम्मान भी कुछ नहीं उसके आगे। सरिता चाह कर भी कुछ कर न सकी। फिर से आने को बोलकर वो घर वापस आ गई।

रात में रज्जो की बात उसके कान में गूंज गई “……इनकी छाँव में तो हैं …..”दर्पण को निहारती सरिता, अब अपना मंथन कर रही थी। वो रज्जो को न्याय दिलाने चली थी, अपने को न्याय दे पाई ? वो भी कहाँ जा पाई ? रज्जो अगर शारीरिक प्रताड़ना की शिकार है, तो वो भी तो, मानसिक प्रताड़ना झेल रही है। उसे भी तो पता है कि, उसका पति किसी और के साथ ….. !

पर फिर भी बच्चों और सामाजिक इज्जत की खातिर झेल रही है।‌बच्चों को पिता से दूर नहीं कर सकती। कम से कम बच्चों के सिर पिता और उसके सिर पति नाम  की  छाँव  तो  है।