आज दिव्या मिली, देख कर खुशी हुई पर थोड़ी सी बूढ़ी लगी, पूरे सफेद बाल और आंखों पर चढ़ा चश्मा, वही सादा सिंपल कुर्ता और सलवार, हाथों में घड़ी और पीछे बंधी हुई चोटी, दौड़ कर गले लग गई।
"कहां थी इतने दिन, कभी याद नहीं आई"
"याद तो बहुत आई, पर हम तो घर गृहस्थी में फसें लोग हैं, सुबह से शाम, शाम से सुबह कब हो जाती है पता ही नही चलता"
"पूजा और पंकज क्या कर रहे हैं ?"
"पूजा एम बी ए कर रही है और पंकज की बारहवीं है, तू बता तेरे भतीजे, भतीजी कैसे हैं ?"
"भतीजियों की तो शादी कर दी और भतीजे का पढ़ने का मन ही नहीं था सो दुकान खुलवा दी"
"और भाभी और अम्मा ?"
"अम्मा नहीं रहीं और भाभी हमेशा की तरह बच्चों की चिंता में,"
"अब तेरा क्या?"
"अब मेरा क्या ?"
कह कर हंसने लगी दिव्या, हंसी में दबे हुए दर्द को महसूस कर लिया मैने, तब से जानती हूं जब हम दो चोटी में स्कूल जाते थे। दिव्या - मेरी प्यारी सखी, अपने पिताजी की लाडली बड़ी बेटी, अपने पिताजी की आकस्मिक मृत्यु से जितना हिल गई उससे ज्यादा अपनी मजबूत मां को टूटते देख नहीं पाई और खड़ी हो गई मां का मजबूत सहारा बन कर। चार छोटी बहनों और एक छोटे भाई की जिम्मेदारी अपने कंधो पर ले ली। ग्रेजुएशन का अंतिम वर्ष था, शिक्षक भर्ती परीक्षा पास कर पास के इंटर कॉलेज में शिक्षिका बन गई और पांच छोटे भाई बहनों की गार्जियन भी।
सबकी शादी करते करते अड़तीस की हो गई, फिर भी मां लगी हुई थी कि कहीं शादी हो जाए। एक दो रिश्ते भी आए पर तभी हमेशा बीमार रहने वाला भाई भी इन सब को छोड़ दुनिया से चला गया और अपनी तीन बेटियों और एक बेटे की जिम्मेदारी दिव्या को दे दी। शादी का इरादा छोड़ फिर से इन बच्चों के साथ उनकी मां और अपनी मां की जिम्मेदारी भी अब दिव्या की ही थी। बहनें अपने-अपने घर में व्यस्त थीं और दिव्या फिर से चार बच्चों की गार्जियन बन गई थी।
मैंने तब बहुत समझाया भी था और गुस्सा भी किया था कि,"तू शादी कर ले, शादी करके भी तू इन सबको देख सकती है", पर वो बोली कि "मैं तब किसी और की मर्जी की मोहताज हो जाऊंगी, कुछ भी करने से पहले ससुराल वालों की रजामंदी भी चाहिए होगी, और मैं इन बच्चों के भविष्य से खेल नहीं सकती"
आज उसी दिव्या की दर्द भरी खोखली हंसी मुझे झकझोर गई और मैं सोचनें लगी कि सचमुच स्वार्थी होना बहुत जरूरी है आज के युग में, नहीं तो दिव्या जैसी गार्जियन आज सबकी आंखों की पुतली होती और ऐसे अकेली न होती।