गढ़ेवा का अग्नि काण्ड

यदि हम अपने सम्पूर्ण जीवन के हर छोटे बड़े किस्सों को एक सूत्र में पिरोने की कोशिश करें तो हमारे हृदयस्थल में ऐसे वृत्तांत ही उभर कर आते हैं जो स्मृतिपटल में अंकित रहने के साथ-साथ कुछ सीख भी दे जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो याद हमें वही रह जाता है जिससे जीवन को कोई सीख मिलती है। ऐसा ही एक किस्सा पाठकों के साथ साझा करने की इच्छा से अपने बचपन की तरफ ले चलता हूँ।
वर्ष 1965 की बात है, उस समय मेरी उम्र 7 वर्ष थी। गर्मी का मौसम था। हमलोग छुट्टियों का आनन्द ले रहे थे। पुरवा से रामशंकर भइया (रमा शंकर भइया के साले) भाभी को बिदा कराने आए थे। दोपहर का भोजन करने के पश्चात् हम सब लोग घर के पिछवाड़े, दहलीज में गप-शप कर रहे थे।
मैं सदैव की भांति लक्ष्मीनारायण दद्दू एवम् बब्बू भइया के घर की चाभी लेकर उनके घर गया। वहां मैं दोपहर में कोई पुस्तक ले जाकर पढ़ता था और पढ़ते-पढ़ते सो जाता था। पर, उस दिन जैसे ही मैंने ताला में चाभी लगाई मेरे अंतर्मन में लाल साहब बाबा ने कहा कि तुम यहां आज मत सोवो, यह स्थान आज सुरक्षित नहीं है। मैं अंतर्मन की बात मानकर पिछवाड़े वाली दहलीज में वापस आ गया।
वह स्थान घर की महिलाओं एवम् बच्चों का उपयुक्त शीतल स्थान था। बप्पू (ताऊजी) पड़री (हमारा ननिहाल) गए थे, कमल भैया (बड़े भैया) को छोड़ने। घर में और कोई पुरुष नहीं था। सभी लोग मस्ती में थे। अचानक अत्यन्त शोर होने लगा। पिछवाड़े वाला द्वार खोल कर देखा गया तो पता चला कि अपने घर ग्वांडा वाली करबी में आग लगी थी, जो प्रचण्ड रुप से चारों ओर फैल रही थी। सारे बच्चों को तुरन्त घर से बाहर सुरक्षित स्थान में जाने के लिए कहा गया। चारों ओर अफरा तफरी मच गई। आग विकराल रूप लेती जा रही थी। घर की सारी महिलाएं फेंटा बांध कर ऊपर छत की ओर भागी और आंगन के चारों तरफ के छप्पर की रस्सियां काट कर नीचे आंगन में गिरा दिया। द्वार वाला छप्पर भी नीचे चबूतरे में गिरा दिया। हैंडपाइप से पानी निकाल कर सारे छप्परों को भीगा दिया जिससे कि आग न पकड़ सके। करबी की लपटें ऊपर छत की मुंडेर की सूखी घास को जलाने लगीं जिसको हांथ से बुझाने के प्रयास में हमारी अम्मा का हांथ झुलस गया। पर उसकी परवाह किए बिना वो लगातार आग बुझाती रहीं। रामशंकर भइया बड़े पिचक्के से लगातार आग पर पानी की बौछार करते रहे, पर उस प्रचण्ड आग में उसका प्रभाव गरम तवे पर पानी की चंद बूंदों की तरह छ�न से हो रहा था।
मैं मुनारी (मेरा छोटा भाई), जिसकी आयु उस समय एक वर्ष से भी कम थी को गोद में लेकर पुत्तीलाल चाचा के घर की ओर भागा। वहां जरा सा ही ठहरा था कि लोगों ने देखा कि आग के जलते हुऐ छप्परों के गुच्छे उड़ उड़ कर आगे के घरों को भी अपने चपेटे में ले रहे थे। वायु वेग और भी प्रचण्ड हो गया, "चले मरुत उन्चास" जैसी स्थिति थी। लोगों ने मुझे वहां से भी भागने को कहा। मैं पुत्तीलाल चाचा के चबूतरे से (जो कि अत्यन्त ऊंचा था) कूद कर बरिया (हमारी छोटी सी बाग) की ओर भागा। वहां पहुंच कर देखा कि रन्नौ दिद्दा (बड़ी बहन) बाकी सारे बच्चों को लेकर वहां पहुंची हुई थी। वो अपने साथ कुछ भोजन भी लाई थीं, जिसे बच्चों को बांट कर खिला रहीं थीं।
लाल साहब बाबा की कृपा से अपना घर आग के चपेटे में नहीं आया पर आस पास के लगभग 20 घरों में आग फैल चुकी थी। अपरान्ह में बप्पू भी पड़री से वापस आ गए। गांव में आग का ताण्डव देखकर उन्होंने साइकिल खड़ी की, तुरन्त कुर्ता उतार कर फेंका और खाली बाल्टी लेकर कुएं की ओर पानी भरने के लिए दौड़े। उनको देखकर घर की महिलाओं ने, जो अभी तक अदम्य साहस का परिचय देकर आग से घर की रक्षा कर रहीं थीं रोने लगी।

