क्या यह सही है?

अन्वेषा अवस्थी कक्षा X, मसकट, ओमान

भारत में शिक्षा प्रणाली में बोर्ड की परीक्षाओं के अंकों पर अत्यधिक महत्व दिया जाता है। समाज इन अंकों को इतनी प्राथमिकता देता है और छात्रों पर छोटी उम्र से ही इतना दबाव डाला जाता है जैसे कि उनका भविष्य केवल इन परीक्षाओं में अच्छे नंबर लाने पर ही निर्भर करता हो।

यह सोच शिक्षा को केवल नंबरों तक सीमित कर देती है, जिससे छात्रों की जिज्ञासा, रचनात्मकता और कुछ अलग सोचने की क्षमता दब जाती है। उन्हें उनके हुनर और रुचियों के बजाय अंकों के आधार पर कॅरिअर चुनने के लिए मजबूर किया जाता है, जिससे उनके सपने और प्रतिभाएं सामाजिक अपेक्षाओं की भेंट चढ़ जाती हैं।

विडम्बना यह है कि इन परीक्षाओं को “क्षमता की परीक्षा” कहा जाता है, लेकिन यह जीवन के असली गुण – जैसे समस्या सुलझाने की क्षमता, भावनात्मक बुद्धिमत्ता और लचीलापन को नहीं माप पातीं। इसके

अलावा, छात्रों पर अत्यधिक मानसिक दबाव डाला जाता है, जिससे कई बार तनाव, थकावट और गंभीर मामलों में दुखद परिणाम भी सामने आ सकते हैं। अमीर परिवार महंगे कोचिंग सेंटर और ट्यूटर का सहारा लेकर आगे निकल जाते हैं, जिससे शिक्षा योग्यता के बजाय विशेषाधिकार पर आधारित हो जाती है। गरीब और मध्यमवर्गीय छात्रों के लिए यह व्यवस्था और भी चुनौतीपूर्ण बन जाती है।

अगर समाज केवल अंकों को ही महत्व देता रहेगा, तो इंसान और रोबोट में क्या फर्क रह जाएगा ? आखिरकार, यह नंबरों का पीछा हमें एक बेहतर इंसान नहीं, बल्कि एक मशीन बना देता है। शिक्षा का मकसद केवल परीक्षाएं पास करना नहीं, बल्कि असल जीवन के लिए तैयार करना होना चाहिए, तभी एक संतुलित और प्रगतिशील समाज का निर्माण संभव हो सकेगा।

अब आप सोच कर बताएं क्या यह सही है !!