“राम” भारतीय जनमानस के जीवन का आधार एक ऐसा नाम, जिसके बिना हमारा जीवन आधारहीन है। राम नाम आद्योपांत है। सनातनियों के हृदयांगन में बसा ये नाम जीवन की हर साँस को सुवासित करता रहता है। उनका चरित्र सभी के लिए अनुकरणीय है। जहाँ राम एक तरफ सरल, सौम्य, धीर, गंभीर, कोमल वाणी और अपने चितचोर सौंदर्य से सभी को प्रफुल्लित करते हैं, वहीं दूसरी ओर न्याय और धर्म के लिए अधर्मियों का पल भर में विनाश करते हैं। अयोध्या वासियों के हृदय में बसे उनके प्रिय राम को जब कैकई चौदह वर्ष के लिए वन भेजने का कठोर आदेश देती हैं तो कैकेई सभी के लिए एक घृणा का पात्र बन जाती हैं और बने भी क्यों ना ? सभी के प्रिय राम को वनवास ! युग बीत गए पर कैकेई की भर्त्सना का अंत नहीं है। एकमात्र राम का ही माँ कैकेई के प्रति प्रेम यथावत रहा।
कैकई, रामायण की वो पात्र, जिन्हें त्रेतायुग से लेकर अब तक सिर्फ तिरस्कार ही मिला है, रामायण में एक अहम भूमिका निभाती हैं। जनमानस की दृष्टि में कैकई एक ऐसी स्त्री हैं, जो कि विमाता, हृदयहीन, कुटिल, ईर्ष्यालु और न जाने कितने उपनामों को धारण करती हैं। वह इतनी स्वार्थी हैं कि राम को दिया जाने वाला राज्य अपने पुत्र भरत को दिलाती हैं, इतना ही नहीं इतनी कठोर कि राम को चौदह वर्ष के लिए वन भेजती हैं।
पर प्रश्न यह उठता है कि राम से असीम स्नेह करने वाली, स्वप्न में भी राम का अहित न सोचने वाली, जहांँ ऐसे कई प्रसंग हैं जब माता कैकई कहती हैं कि, राम तुमने मेरी कोख से जन्म क्यों नहीं लिया ! इतनी पाषाण हृदय ! इतनी निर्दयी ! कैसे हो गई ? इतना बड़ा लांछन !! अपने सिर क्यों लिया ? इतनी कलंकित हो गई कि, आज भी कोई अपनी पुत्री का नाम कैकेई नहीं रखता।
हम आज इस पर विचार करेंगे कि कैकेई की यह नियति थी या नीयत – वो वंदनीय हैं या निंदनीय, उन्होनें अहित किया या हित किया !
कैकई, केकय देश की राजकुमारी और केकय नरेश अश्वपति और रानी शुभलक्षणा की पुत्री थी। कैकई राजा दशरथ की कनिष्ठ रानी थी। कैकई एक योद्धा भी थी, रामायण के अनुसार राजा दशरथ के युद्धों में उन्होंने कई बार विशेष भूमिका निभाई। वो एक कुशल सलाहकार थी। युद्ध के समय राजा दशरथ को वही सलाह देती थी। अगर हम बात कैकेई की नीयत की करें, तो तुलसी कृत रामचरितमानस में राम से असीम स्नेह रखने वाली कैकेई देवताओं के स्वार्थ की निमित्त मात्र है।
एक अन्य दृष्टांत के अनुसार विवाह से पूर्व एक बार राजा अश्वपति के राजपुरोहित, जिन्होंने उन्हें शास्त्र की शिक्षा दी थी बतलाया कि ज्योतिष गणना के अनुसार राजा दशरथ की कोई संतान उनकी मृत्यु के चौदह वर्षों के दौरान राजगद्दी पर नहीं बैठ सकती। यदि ऐसा हुआ तो रघुकुल का विनाश हो जाएगा। जब राम के राज्याभिषेक की घोषणा हुई, तब कैकेई को राजपुरोहित की बात का स्मरण हो आया। उनके प्रिय पुत्र रघुकुल के विनाश का कारण बने ये वो कैसे होने देती ? यदि राम राजा नहीं तो भरत के साथ उनके कोई भी भाई राजगद्दी पर कभी नहीं बैठेंगे। इस कारण कैकेई को इस कलंक का टीका लगाना पड़ा।
यदि इस दृष्टांत को हम न माने तो एक तो सर्वमान्य और सर्वविदित प्रसंग है कि राजा दशरथ को श्रवण कुमार के माता-पिता ने श्राप दिया था कि जिस प्रकार पुत्र वियोग में तड़प कर मेरी मृत्यु हो रही है ठीक वैसे ही तुम्हारी मृत्यु होगी। केवल कैकेई को इस श्राप की जानकारी थी।
समय बीता राम के राज्याभिषेक की योजना बनने लगी। इधर देवताओं ने वाग देवी माँ सरस्वती की सहायता से मंथरा की बुद्धि भ्रष्ट कर दी। वह जाकर कैकई को भड़काने का कार्य करती है। पर यहांँ भी देखा जाए तो कैकेई मंथरा की बातों में नहीं आती। अपितु राम का अभिषेक ! यह शुभ समाचार सुनकर वो खुशी से फूली नहीं समाती। राम से असीम स्नेह रखने वाली माता कैकई जब मंथरा से यह शुभ समाचार सुनती हैं तो प्रसन्न होकर अपने गले का हार मंथरा को दे देती हैं और कहती हैं कि मेरा राम, मेरा पुत्र राम राजा होगा। तभी मंथरा कैकेई से कहती है कि राज्याभिषेक भरत का होना चाहिए न कि राम का। अगर राम राजा हो गए, तो राम की माता कौशल्या की तुम दासी बनकर रह जाओगी। कौशल्या का सम्मान अधिक होगा। राजा से जाकर कहो कि वो राम का नहीं भरत का टीका करें। उस समय कैकेई क्रुद्ध होकर मंथरा से कहती हैं कि राम के विरुद्ध अगर कुछ भी बोला तो मैं तेरी जबान खींच लूँगी। मेरे लिए भरत और राम में कोई अंतर नहीं। अगर राम राजा बने तो मेरे से अधिक प्रसन्न कौन होगा। आज मेरे आराध्य ने मेरी इच्छा पूर्ण की है, आज का दिन अत्यंत शुभ है। मंथरा फिर भी नहीं मानती और कहती है कि राजा कोई भी हो मैं तो दासी ही रहूँगी कौन सा रानी बन जाँऊगी। मुझे तो तुम्हारी चिंता है। तब कैकई कहती है कि तू मेरी नजर से दूर हो जा, आज के शुभ दिन मैं कोई पाप नहीं करना चाहती। मुँह लगी दासी फिर कहती अरे कैकेई मै तेरे भले के लिए कह रही हूँ। राजा ने दो वरदान देने को कहा था, अब वो समय आ गया है राम का नहीं भरत का राज्याभिषेक माँग ले।
अब यहाँ पर देखा जाए तो कैकेई मंथरा के कहने से नहीं बल्कि ठीक उसी समय कैकई को देवासुर संग्राम का स्मरण होता है, साथ ही स्मरण होता है श्रवण कुमार के माता-पिता के श्राप का। कैकई की सारी प्रसन्नता क्षण भर में विलुप्त हो जाती है। उनके मुख पर चिंता व दुःख के बादल छा जाते हैं। मंथरा को लगता है कि कैकेई उसकी बात मान गई है। वह और भी बहुत कुछ बोलती रहती है पर कैकेई को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था वो तो राजा को दिए गए श्राप में ठहर गई थी।
अगर दशरथ की मृत्यु पुत्र के वियोग में है तो, पुत्र तो सभी प्रिय हैं पर, राम की बात अलग है। दशरथ को राम अपने प्राणों से भी प्रिय हैं तो क्या राम के साथ कोई अनहोनी होगी या राम का देहावसान …… इतना सोचते ही कैकेई की आत्मा काँप उठी, नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता। कैकेई के मुँह से इतना निकला। मंथरा प्रसन्न हो कर कोप भवन में जाने की सलाह दे कर अपने भवन चली गई। पर, कैकेई का हृदय हाहाकार कर रहा था। उनकी सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो गई थी। राजा को हमेशा सलाह देने वाली माँ क्षणभर के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई।
अब जो कुछ भी करना पड़े वो करेगी, श्राप तो झूठा नहीं होगा, राजा की मृत्यु तो निश्चित है वो भी पुत्र वियोग में पर ऐसा कुछ हो कि इसमें राम का अहित भी न हो। दृढ़ निश्चित के साथ वो एक कठोर निर्णय ले लेती है – “दशरथ से एक वर भरत का राज्याभिषेक का और दूसरा राम को चौदह वर्ष का वनवास का”।
कितना कठिन होगा कैकेई के लिए इस कलंक को स्वयं लेना, आजीवन उसको झेलना। उन्हें ये भी पता था कि वो अपने पुत्र भरत के लिए भी घृणा की पात्र बन जाएगी क्यों कि भरत को राम से अधिक कोई प्रिय नहीं था और वो भी कदाचित राम का अनुसरण कर वन को प्रस्थान कर जाए। पर ये स्थिति भी उन्हें मान्य थी, पर राम का अहित नहीं। वो परिस्थित तो अत्यंत भयावह होगी।
तार्किक रूप से भी अगर सोचे तो उन्हें भरत को राज्य दिलाना होता तो वो मात्र भरत के राजतिलक को कहती न कि साथ में राम को वन भेजने का भी वर माँगती। राजा दशरथ जी ने कितनी याचना की, कि भरत ही राजा होंगे पर राम को वन नहीं कोई दूसरा बार माँग लो। राम में मेरे प्राण बसते है। यहांँ भी दशरथ राम के प्रति कैकेई के असीम स्नेह की स्मृति कराते हैं। पर, कैकेई पर कोई असर नहीं होता, हठ पकड़ लेती हैं कि नहीं, राम को वन जाना ही होगा।
यहाँ ये भी सोचने की बात है कि माँ से ज्यादा पुत्र को कोई नहीं जानता, कैकेई को अच्छी तरह ज्ञात था कि राम से भरत का अटूट प्रेम है, वो राम की परछाई है। भरत ऐसे राज सिंहासन पर बैठना तो दूर, उसे सुई की नोक से भी नहीं छूएँगे। फिर नीयत से वो ऐसा क्यों करेंगी ?
उस समय उनकी मनःस्थिति में कितना द्वंद चल रहा होगा। उनकी अंतर्व्यथा अव्यक्त थी, पर इस हलाहल को उन्हें पीना ही था। उन्हें पता था इतिहास उन्हें एक कुमाता के रूप में स्मरण करेगा। पर पुत्र राम के लिए ये कलंक भी शिरोधार्य किया माँ कैकेई ने। युग बीत गए, पर लोगों के हृदय में उनके प्रति तिरस्कार से उनका प्रारब्ध ही अभिशप्त हो गया।
रामचरितमानस के अनुसार ये किया धरा सब देवताओं का है, पर हाय ! विडंबना देवता पूजे जाते हैं। ये भी ध्यान देने की बात है कि भगवान श्री हरि ने, रावण के वध के लिए ही नर रूप में अवतार लिया था, तो ये भी तो विधि का ही विधान था, उनके वन जाने का। तो केकैई दोषी कैसे ?
कैकेई की अगर ये नीयत थी, तो कहते हैं कि पश्चताप के अश्रु जो गंगा के समान पवित्र होते हैं और सारी कलुषित भावना और पाप को धुलकर अन्तर्मन पवित्र कर देते हैं, ऐसा कैकेयी के साथ क्यों न हुआ। फिर जिस नीयत से विश्व का कल्याण हो, जिसकी पटकथा स्वयं श्री हरि ने लिखी हो तो माँ कैकेई का ही तिरस्कार क्यों ?