कलाम की कला से

मैं एक कलम हूँ। दिखने में तो मैं बहुत आम और निर्जीव हूँ परन्तु जब मुझे कोई नहीं देख रहा होता, तब मैं लिखना पसंद करती हूँ। मुझे सैंकड़ो लोग इस्तेमाल करते हैं। विद्यार्थियों, लेखकों और बहुत से लोगों को मैं काफी प्रिय हूँ। जब बच्चे छोटी कक्षा से बड़ी कक्षा में जाते हैं और उन्हें पेंसिल की जगह मुझे पकड़ाया जाता है, तब उनके चेहरे की ख़ुशी देख कर मैं भी खुश हो जाती हूँ। मैं निर्जीव नहीं हूँ मुझमें भी भावनाएं होती हैं और मुझे भी दर्द होता है। दर्द होता है जब मैं गुम जाती हूँ, दर्द होता है जब मुझे लोग गिरा देते हैं, दर्द होता है जब मुझे झटक झटक कर मुझसे सियाही निकालते हैं। पर वह दर्द तब तक ही रहता है जब तक मुझे फिर से कोई इस्तेमाल नहीं करता। दर्द तब भी होता है जब, मुझे इस्तेमाल करने की जगह, सब अपने फ़ोन, लैपटॉप, आदि में ही लिख लेते हैं। आज कल की दुनिया में सब डिजिटल होने लगा है। किताबें भी लोग इन्हीं सब चीज़ों से पढ़ लेते हैं। मेरे कई पुस्तक दोस्त मुझे बताते हैं की जब यह सब चीज़ें दुनिया में नहीं थी, तब हम बहुत प्रचलन में थे। ऐसा नहीं है की हमें कोई इस्तेमाल नहीं करता या फिर किसी को हमारी ज़रुरत नहीं है, बस अब हमें अनिवार्यता नहीं समझा जाता। अब हम एक विकल्प बन कर रह गए हैं। पर मुझे अभी भी भरोसा है की आज भी कई लोगों के लिए हम अभी भी मायने रखते हैं। कई लोगों के लिए हम विकल्प नहीं ज़रुरत हैं। मेरी दादी मुझे बताती थी की, उन्हें किसी पुस्तक दोस्त से यह पता चला था की, जब हमारा आविष्कार हुआ था तब, हम सबका खज़ाना होते थे। हमें बहुत प्यार से और सावधानी से पकड़ा जाता था और कुछ लोग तो हमें सुन्दर बक्सों में रखते थे। पर मुझे कोई शिकायत नहीं है क्योंकि मैं भारत में रहती हूँ। मुझे यहाँ आज भी बड़े प्यार से रखते हैं। जब कभी मैं गिर जाती हूँ तब मुझे माथे पे लगा कर नमस्कार करते हैं, मानो मुझसे माफ़ी मांग रहे हों। मुझे यहाँ विद्या की देवी माता सरस्वती का अंश मानते हैं। मेरा एक मित्र जो अमेरिका में रहता है, मुझे बता रहा था कि, वहां सब कुछ काफी भिन्न है। वहां तो अगर कोई कलम

उनके पैर के नीचे भी आ जाती है तो उससे माफ़ी माँगना तो दूर की बात है, उल्टा उसे और डांटते हैं। उसी क्षण मैंने यह फैसला कर लिया था की मैं अमेरिका कभी नहीं जाऊंगी, और अगर कभी जाना भी पड़ गया तो छिप जाऊंगी, जिससे किसी के पैर तो क्या हाथ भी न लगूँ। मैं अक्सर यह सोचती हूँ की कितना अच्छा होता अगर मैं सभी इंसानों से या फिर आस पास की वस्तुंओं से खुल कर बात कर पाती, उन्हें अपने विचारों के बारे मैं खुल कर बता पाती। पर कभी कभी मुझे ऐसा भी लगता है की खुल के जीवन जीने से अच्छा है कुछ चीज़ों को अपने पास गुप्त ही रखना बेहतर होता है। मेरे पास हाथ नहीं हैं और कागज़ में जगह ख़तम हो गयी है, बहुत सी बातें हैं जो मिझे लिखनी हैं, इसीलिए अब इंतज़ार करना होगा तब का जब फिर चिंटू मेरे पास कोई खाली कागज़ छोड़ कर जाएगा। तब तक के लिए नमस्ते, फिर लिखेंगें ……….

सुनिष्का त्रिपाठी, रायन इंटरनेशनल स्कूल, मुंबई