आज़ादी और आदिवासी

आजादी की लड़ाई में आदिवासियों के योगदान पर यदा-कदा ही बात होती है।

उनके ढेरों योगदान को गाहे-बगाहे ही महत्व मिलता है। यह भी सच है कि कई उपजातियों एवं समुदायों में विभाजित आदिवासी समाज ने भारत की आजादी के लिए सीधे - सीधे कोई खास लड़ाई नहीं लड़ी। इसका कारण समाज का तत्कालीन ताना - बाना था। इसे संक्षेप में समझते हैं। देखा जाय तो, अंग्रेजों ने सीधे भारतीयों पर राज नहीं किया। उन्होंने राजाओं, सामंतों और जमींदारों के माध्यम से शासन किया। वे उन्हीं के माध्यम से भारतीय जनता पर कोई भी कानून लागू करते थे। राजस्व वसूली भी ऐसे ही होती थी। इसलिए आदिवासियों का सीधा मुकाबला जमींदारों और सामंतों से था। कभी - कभी ऐसे संघर्ष जब जमींदारों और राजाओं के नियंत्रण से बाहर हो जाते थे तो वे ब्रिटिश सरकार से मदद मांगते थे, तब अंग्रेज सेना भेजते थे। ऐसे में आदिवासियों को अंग्रेजी सेना और जमींदारों से सीधा मुकाबला करना पड़ता था। यह लड़ाई जमींदारों या राजाओं के साथ न होकर कहीं न कहीं अंग्रेजों के खिलाफ ही थी। इस लड़ाई में कहां अंग्रेजों की सुसज्जित सेना थी, तो आदिवासियों के पास सिर्फ पारंपरिक अस्त्र - शस्त्र ही थे। सामंतों के पास एक प्रशिक्षित पुलिस बल, तो साहूकारों के पास धन का बल था। संसाधनों की कमी के कारण हर आंदोलन में आदिवासियों को जान - माल की भारी हानि उठानी पड़ी।

कुछ आंदोलनों की बात करें, तो आदिवासियों ने 1780 में संथाल परगना में आंदोलन की शुरुआत की थी। दो आदिवासी नायकों तिलका और मांझी के नेतृत्व में यह आंदोलन 1790 तक चला। ‘दामिन विद्रोह’ के नाम से परिचित इस आंदोलन में तिलका ने उसे पकड़ने आए सेना के ऑफिसर मि. क्लीवलैंड पर तीर चला दिया। इसके बाद तिलका को पकड़ने के लिए अंग्रेजी सेना ने छापामार युद्ध का सहारा लिया। तिलका - मांझी ने अंग्रेजों से लोहा लिया। बाद में तिलका को पकड़कर अंग्रेजों ने पेड़ से लटकाकर मार दिया। वर्ष 1855 में संथाल के आदिवासी वीर योद्धाओं सिद्धू और कान्हू का विद्रोह हुआ। इस हिंसक आंदोलन में शामिल 30 - 35 हजार आदिवासियों ने अनेकों अंग्रेज सैनिक और अधिकारियों को मार डाला। इसके बाद अंग्रेजों ने जमकर कत्लेआम किया और लगभग 10 हजार आदिवासी मारे गए। इसी प्रकार 1913 में मनगढ़ में हुए आदिवासी आंदोलन  में 1500 आदिवासी शहीद हुए थे।

आदिवासी समाज को लेकर लिखनेवाले मानते रहे हैं कि 1780 से 1857 तक के 77 सालों में आदिवासियों द्वारा चलाए गए आजादी के आंदोलनों में लाखों आदिवासी मारे गए, पर उन्हें इतिहास में ठीक से स्थान नहीं मिला। तिलका - मांझी द्वारा चलाया गया 1780 का “दामिन विद्रोह”, 1855 का “सिहू कान्हू विद्रोह”, 1828 से 1832 तक बुधु भगत द्वारा चलाया गया “लरका आंदोलन” बहुत प्रसिद्ध जनजातीय आंदोलन रहे हैं। समय बदला, सोच बदली। समाज के हाशिये पर रहनेवाले समुदायों को भी मुख्य धारा से जोड़ने का निरंतर प्रयास हुआ है। ढेरों विवाद और तर्क - वितर्क के बीच ऐसे ही पिछड़े हुए आदिवासी समाज की सुध ली गई। आज यह देश का गौरव ही है कि एक आदिवासी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू राष्ट्र का नेतृत्व कर रही हैं। आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान देनेवाला यह समाज आज भी ढेरों सुविधाओं से वंचित है।

बिपिन राय, कोलकाता